झूले पर बच्चा चुपचाप बढ़ रहा है। स्थिर होकर भी दिल बढ़ता है। हम सब अपने झूले के सामने खड़े हैं, सीख रहे हैं।
गर्मियों की दोपहर में,
अपार्टमेंट के पास के छोटे से पार्क में,
एक बच्चा एकाग्रता से झूले की रस्सियाँ पकड़ता है।
हवा थमती है,
झूला शांत है,
जैसे कुछ शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहा हो,
जैसे दिल की एक चुप्पी।
हम सबने ऐसे पल देखे हैं।
जब झूला साझा था,
फिर एक दिन अकेले झूलना भी ठीक लगने लगा।
बच्चे के हाथ मजबूत हैं,
शायद उसे झूलना नहीं है—
बस उस पल को थामे रखना है।
वह संतुलन बनाता है,
पैर उठाता है,
झूले पर चढ़ जाता है।
यह पल कैमरे में कैद हुआ।
चुप्पी में भी
दिल में कुछ हिलता रहता है।
झूले वाले पार्क यादें रखते हैं।
हँसी, पसीना, बच्चों की बातें।
कुछ लोग कभी वापस नहीं आते,
पर पार्क वहीं रहता है।
बच्चे की परछाई छोटी है,
पर उसका समय लंबा लगता है।
झूले पर चढ़ते बच्चे में
हमारे बचपन का साहस झलकता है।
ऊँचा झूलना जरूरी नहीं।
हिलना भी जरूरी नहीं।
जरूरी है—
झूले के सामने खड़ा होना
और उस पल का इंतज़ार करना।
गर्म दिन में,
फर्श चमकता है,
पेड़ छाया देते हैं,
और समय रुक सा जाता है।
शांति से देखना
भी सुकून देता है।
बच्चा आज सीख रहा है—
रुकना,
संतुलन बनाना,
और ठहराव को अपनाना।
झूला स्थिर है,
पर दिल बढ़ रहा है।
शायद हम सब
अपने-अपने झूलों के सामने हैं—
सीखते हुए, बढ़ते हुए।


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