धुंध में ढँका शहर हमें थकी लेकिन जुझारू ज़िंदगियों की याद दिलाता है। इस रोज़मर्रा के पार भी रौशनी इंतज़ार करती है।
सुबह की हवा पूरी तरह धुंधली है।
ऐसा लगता है जैसे किसी ने शहर पर एक पतली काँच की परत चढ़ा दी हो।
पहाड़, नदी और इमारतें सब धुंधली हैं।
लेकिन इस धुंध में अजीब तरह से मन स्पष्ट हो जाता है।
ऊँची-ऊँची इमारतें आसमान की ओर सीधी उठी हैं।
सफ़ेद और गुलाबी रंग की ये इमारतें
शहर की सख्ती और कोमलता दोनों को समेटे हुए हैं।
हर मंजिल पर अलग-अलग ज़िंदगियाँ बसी हैं।
धुँधले गलियारों से आती खाने की खुशबू,
तेज़ कदमों की आवाज़ें,
और बेपरवाह चेहरों में छिपी भावनाएँ।
उनके पीछे बहती है एक नदी।
करीब जाने पर शायद फैक्ट्रियों का शोर और मशीनों की गूंज सुनाई दे,
लेकिन इस दूरी से वह बस शांत लगती है।
नीला नहीं, बल्कि धुंधला पानी, धुंआ-भरी हवा,
और उलझी हुई पाइपलाइनें।
अजीब नज़ारा है,
पर यहाँ के लोगों के लिए यह एक परिचित पृष्ठभूमि है।
दूर धुंध में छिपे पहाड़ों की आकृति
शहर की सीमा और किसी नई दुनिया की शुरुआत सी लगती है।
जो लोग रोज़ाना इस नज़ारे को देखते हैं,
उनके लिए ये धुंधली सुबह भी एक छोटी ज़िंदगी है।
कुछ खास नहीं होता,
पर आज का दिन शांति से गुजर जाए—
बस यही काफ़ी है।
ये दृश्य खूबसूरत नहीं है।
लेकिन ये हम जैसा है।
थोड़े थके हुए, थोड़े सुस्त,
फिर भी रोज़ जीते जा रहे हैं।
हमारे रास्ते पर चाहे धुंध हो,
उसके पार हमेशा किसी की रौशनी हमारा इंतज़ार करती है।
जो भी किसी मंज़िल की ओर चल रहा है,
ये धुंध अस्थायी है।
इसके पार सूरज ज़रूर मिलेगा।
सिर्फ़ यह जानना ही आज को जीने का कारण बन जाता है।


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