रास्ते के अंत में एक दर्पण था

 जंगल के आईने में बीता समय दिखा। उसकी खामोशी में सवाल थे और मेरे भीतर से ही जवाब निकले—सुनने लायक जवाब।

जंगल के रास्ते पर चलते हुए, एक गोल दर्पण दिखा।
पहले तो सोचा—यहाँ दर्पण क्यों है?
जहाँ गाड़ियाँ भी नहीं चलतीं, वहाँ यह बड़ा सा आईना।

लेकिन उसमें दिखता जंगल
आंखों से देखे दृश्य से कहीं गहरा था।
शांति से भरा, जैसे एक और दुनिया।
और उसमें दिखता मैं,
एक पल को रुककर सोचता इंसान।

यह दर्पण सिर्फ पीछे नहीं दिखाता,
बल्कि बीता हुआ समय भी लौटा देता है।

कई लोग इसे सुरक्षा उपकरण कहेंगे,
पर मेरे लिए यह एक नरम सवाल था:
“क्या यह रास्ता सही है?”
“पीछे मुड़कर देखने पर क्या नजर आता है?”

दूर से अपने आप को देखा।
मैं सोच से ज़्यादा चल चुका था,
ज़्यादा सह चुका था।

हमेशा आगे बढ़ते हैं,
लेकिन कभी-कभी पीछे देखना ज़रूरी होता है।
जंगल चुप होता है,
लेकिन उसकी खामोशी बहुत कुछ कहती है—
पत्तों की सरसराहट, मिट्टी की खुशबू,
चिड़ियों की आवाज़ें।

सब कहती हैं:
“तुम सही चल रहे हो।”
“जल्दी मत करो।”

दर्पण रास्ते के मोड़ पर खड़ा था,
शांत,
छोटे-छोटे कीमती पल संजोते हुए।
और उसने कहा—
रुकना ठीक है,
आराम करना भी ज़रूरी है।
क्योंकि हम सब अपने-अपने जंगल में
सफ़र कर रहे हैं।

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